अनुवादक की स्थानीयपरक सीमाएँ
प्रत्येक जगह, राज्य, देश और भौगोलिक क्षेत्र की
अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, लोकमान्यताएँ, रीति-रिवाज तथा
प्रचलन एवं विश्वास होते हैं। इन सभी व्यवहारों को व्यक्त करने की अपनी रीति-नीति
और भाषिक प्रयुक्तियाँ होती हैं। जब ये प्रयुक्तियाँ अपनी सीमा से अतिक्रमित होकर
अन्यत्र प्रयोग में आती हैं तो अपने मूल अर्थ की अपेक्षा भिन्न अर्थ की अभिव्यंजना
भी करती पायी जाती हैं। हिंदी में चष्टा का अर्थ कुछ और मराठी में कुछ है। मराठी
में इसका अर्थ मजाक हो जाता है। हिंदी का बराबर दक्षिण में सही के लिए उपयुक्त
होता है। अमेरिका में गैस (Gas) का अर्थ पेट्रोल है जबकि
भारत में इसे तरल के गैसीय (हवा) रूप
को कहा जाता है। इस प्रकार अनुवादक को अनुवाद प्रक्रिया में क्षेत्रीयता और
स्थानीयपरक अभिव्यक्तियों की सीमाओं से रूबरू होना पड़ता है।
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषी देश में
अनेक लिखित एवं मौखिक रूप में अनेक भाषाएँ हैं। भले ही वे सरकारी तौर पर अधिसूचित
न हों लेकिन जन-व्यवहार में प्रयुक्त होती है। इनमें अपनी-अपनी आंचलिकता के अनुसार
संकल्पनात्मक विशिष्टियों के प्रयोग मिलते हैं जिनका अनुवाद करना सरल नहीं होता
है। उदहारण के तौर पर फणीश्वर नाथ रेणु जी की रचनाओं का अनुवाद बहुत ही दुष्कर है।
इसके लिए केवल हिंदी भाषा का ज्ञान ही नहीं जरूरी है बल्कि अनुवादक को पाठ के
क्षेत्र विशेष में हिंदी के प्रयोग, मुहावरों, लोकोक्तियों से भी परिचित होना
पड़ेगा। इस प्रकार अनुवादक को अच्छे अनुवाद के लिए स्थानीयपरक सीमाओं को जानना एवं
उसकी स्थितियों से परिचित होना पड़ता है और इसके लिए स्रोत भाषा के किसी विशेषज्ञ
या भाषा-भाषी की सहायता लेना अपेक्षित है। बिना स्थानीयपरक सीमाओं को जाने अच्छा
अनुवाद संभव नहीं है।
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