रविवार, 8 जनवरी 2023

सबटाइटलिंग तथा इसके प्रकार

                                                      सबटाइटलिंग तथा इसके प्रकार


सबटाइटलिंग (subtitling) भी एक प्रकार का अनुवाद है जो मूकता या मौन के कथ्य को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सिनेमा में प्रारंभ से ही सबटाइटलिंग का प्रयोग होता रहा है। शुरू-शुरू में फ़िल्में मूक होती थीं, इसलिए उनको सबटाइटलिंग के द्वारा व्याख्यायित किया जाता था। सबटाइटलिंग को हिंदी में उपशीर्षीकरण भी कहते हैं इससे मूक-बधिर एवं अन्य भाषा-भाषी लोगों को फिल्म में चल रहे संवाद को समझने में सहायता मिलती है। सबटाइटलिंग अथवा उपशीर्षीकरण के मुख्यत: दो प्रकार होते हैं :

1.       सदृश भाषा सबटाइटलिंग, एवं

2.       अनूदित सबटाइटलिंग।

सदृश भाषा सबटाइटलिंग उन लोगों के लिए की जाती है जो देख तो सकते हैं लेकिन बहरा होने के कारण सुन नहीं सकते। इस प्रकार के सबटाइटलिंग का प्रयोग भाषा सीखने में भी होता है तथा भाषा सीखने के लिए यह बहुत कारगर सिद्ध होता है। अनूदित सबटाइटलिंग से अन्य भाषा-भाषी को फिल्म समझने में सहायता मिलती है तथा इससे अनुवाद प्रक्रिया को भी सीखा जा सकता है। 

अनुसृजन और अनुवाद

                                                                   अनुसृजन और अनुवाद


अनुसृजन की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की जाए तो अनु का अर्थ होता है – ‘के पश्चात् अर्थात मूल कृति अथवा रचना को फिर से लक्ष्यभाषा की प्रकृति एवं बिंब-विधान आदि के अनुरूप अर्थ छायाओं को प्रस्तुत करने हेतु मूलभाव पर आधारित पाठ या रचना का निर्माण करना अनुसृजन है। यह मूलकृति की भावना पर आधारित फिर से रचा गया पाठ या रचना होती है। कुछ विद्वान इसे पुनर्सृजन भी कहना पसंद करते हैं। अनुसृजन अनुवाद की ही विशेष विधा है जिसमें सर्जनात्मक स्वतंत्रता अनुवाद से बहुत ज्यादा होती है। अनुसृजन में हम बहुत कुछ जोड़ सकते हैं या घटा सकते हैं। उमर खैय्याम की रूबाइयों का फिट्जेराल्ड द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद तथा फिट्जेराल्ड की अनूदित कृति का हिंदी में हरिवंशराय बच्चन का अनुवाद ‘मधुशाला अनुसृजन का एक सर्वोत्तम उदाहरण है।

अनुवाद कई बार सृजन से भी दुष्कर होता है। इसमें अनुवादक को मूलरचनाकार के भाव को समझकर उसे हूबहू लक्ष्य भाषा में संप्रेषित करना होता है। इसमें अनुसृजन या पुनर्सृजन की भांति सृजनात्मक आजादी नहीं होती है। अनुवादक का हमेशा से प्रयास होता है कि वह ज्यादा से ज्यादा से मूल पाठ या रचना के करीब रहे चाहें वो भाषाई स्तर पर हो या सांस्कृतिक स्तर पर या भावात्मकता की बात हो। इस प्रकार, अनुवाद का कार्य अनुसृजन के कार्य से अधिक कठिन प्रतीत होता है। 

मशीनी अनुवाद की विभिन्न पद्धतियाँ

                                                  मशीनी अनुवाद की विभिन्न पद्धतियाँ

मशीनी अनुवाद वह अनुवाद है जो स्रोत भाषा के पाठ या संदेश को लक्ष्य भाषा के पाठ या संदेश में स्वत: अनूदित कर देता है। यह अनुवाद चूँकि मशीन (कंप्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट) द्वारा होता है इसलिए इसे मशीनी अनुवाद कहते हैं। इसे कई बार स्वत: अनुवाद भी कहा जाता है।

 प्रारंभ में मशीनी अनुवाद की निम्नलिखित तीन पद्धतियाँ प्रयोग में लायी जाती रहीं :

1.       प्रत्यक्ष मशीनी अनुवाद पद्धति (Direct Machine Translation System) : इसमें द्विभाषी कार्पस बनाये जाते हैं जिसमें स्रोत भाषा के शब्दों के समानार्थक लक्ष्य भाषा के शब्द रहते हैं। यह 60 एवं 70 के दशक के मध्य तक प्रचलित थी। इसमें पार्सर का प्रयोग नहीं होता है। इसमें स्रोत भाषा के शब्दों के स्थान पर लक्ष्य भाषा के शब्दों को रखकर बाद में लक्ष्य भाषा के वाक्य-विन्यास के अनुरूप शब्दों का संयोजन किया जाता है। इसी प्रकार का IIIT, हैदराबाद द्वारा तैयार किया गया ‘अनुसारक’ मशीनी अनुवाद प्रणाली है जो लगभग सभी भारतीय भाषाओं के लिए है।

2.       अंतरण मशीनी अनुवाद पद्धति (Transfer Machine Translation System) : मशीनी अनुवाद की दूसरी पीढ़ी में विश्लेषण और संश्लेषण के अलावा अंतरण की भी व्यवस्था शुरू हुई। इसमें स्रोत भाषा के प्रत्येक शब्द को व्याकरणिक कोटियों के आधार पर निरूपित कर उनका आंतरिक ढाँचा तैयार किया जाता है। इसमें शब्द और संरचना दोनों स्तरों पर भाषा का अंतरण होता है। इसके लिए स्रोत भाषा का एकभाषी कोश और अंतरण के लिए द्विभाषी कोश की आवश्यकता पड़ती है।

3.       अंतरभाषा मशीनी अनुवाद पद्धति (Interlingua Machine Translation System) : इसके विकास से विभिन्न भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद की व्यवस्था शुरू हुई । इसमें एक भाषा को केंद्र में रखकर कार्य किया जाता है। किसी भी भाषा से पहले उसी केंद्रित भाषा में अनुवाद होता है। उसके बाद वह केंद्रित भाषा स्रोत भाषा बन जाती है और उससे लक्ष्य भाषा में अनुवाद होता है। यूरोपीय समुदाय का  यूरोत्रा (EUROTRA) (1978-92) तथा एशियाई भाषा के लिए एम. यू. (M.U.) इसी पद्धति पर आधारित प्रणाली है।

बाद में तीन अन्य प्रकार की पद्धतियों का विकास हुआ जो निम्नवत हैं :

1.       नियम आधारित मशीनी अनुवाद (Rule Based Machine Translation System)

2.       सांख्यिकीय आधारित मशीनी अनुवाद (Data Driven or Statistical Machine Translation System)

3.       संकर मशीनी अनुवाद पद्धति (Hybrid Machine Translation System)

हम यहाँ इनकी विस्तृत चर्चा नहीं कर रहे हैं। अभी सभी जगह संकर या हाइब्रिड प्रणाली का प्रयोग हो रहा है एवं गूगल अनुवाद संकर एवं न्यूरल पद्धति को मिश्रित कर अच्छा परिणाम दे रहा है।

बहुभाषिक समाज में निर्वचन की भूमिका और प्रक्रिया

                                        बहुभाषिक समाज में निर्वचन की भूमिका और प्रक्रिया

भारत सरकार की विधि शब्दावली में निर्वचन (Interpretation) को एक प्रक्रिया बतलाया गया है जिसका उद्देश्य किसी पाठ के अर्थ को जानना है। सामान्यत: जो व्यवस्था एक भाषा को बोलने-समझने वाले व्यक्ति और किसी दूसरी अन्य भाषा को बोलने-समझने वाले व्यक्ति के बीच मौखिक संवाद को संभव बनती है, वही निर्वचन है। इस प्रकार निर्वचन आशु अनुवाद, भाषांतर, अर्थ-निर्णय, व्याख्या, भाष्य-टीका (मौखिक), अनुवचन, वर्तानुवाद, आदि के बहुत समीपस्थ अर्थ रखता है। निर्वचन का मूल उद्देश्य है :

1.        किसी सार्वजानिक समारोह, सम्मलेन, आयोजन, आदि की गतिविधि, व्याख्यान आदि का उसी समय लक्ष्य स्रोता वर्ग के समझने के लिए तुरंत निर्वचित रूप प्रस्तुत करना, एवं

2.        दो व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालाप को क्रमश: कथन के तुरंत बाद क्रमागत रूप में प्रस्तुत करना।

निर्वचन और अनुवाद में फर्क है क्योंकि निर्वचन मौखिक होता है और अनुवाद लिखित होता है। बहुभाषिक समाज में निर्वचन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निर्वचन किसी भी बहुभाषी समाज में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं सक्रिय रूप से घटित होता है। भारत में कहा जाता है कि ‘चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी’। यहाँ निर्वचन के बिना कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता है चाहे हो वो यात्रा हो संगोष्ठी हो या कोई अन्य गतिविधि। यहाँ की बहुसंख्यक लोग भी बहु भाषी होते हैं अंत: निर्वचन की अप्रत्यक्ष रूप ज्यादा दीखता है। यहाँ यात्रा-पर्यटन, धार्मिक कार्य, सम्मलेन, चुनावी रैलियाँ, संसद भवन, राजनीतिक गतिविधियाँ आदि सभी के लिए निर्वचन की आवश्यकता पड़ती है।

निर्वचन में दोनों भाषाओं पर समान अधिकार होना चाहिए। साथ ही दोनों भाषाओं के संकेतार्थ एवं व्युत्पत्तिपरक अर्थ का ज्ञान भी अपेक्षित होता है। वह एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा की कोड व्यवस्था का इस्तेमाल करते हुए उस भाषा में अभिव्यक्त करता है। यह अनुवाद से कई गुना कठिन होता है तथा इसके लिए अभ्यास एवं अनुभव अपेक्षित होता है। इसमें निर्वाचक के पास अति अल्प समय होता है जिसमें उसे सारी प्रक्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इसके लिए निर्वाचक को अपनी कई क्षमताएँ विकसित एवं बढ़ानी पड़ती हैं जिसके लिए निम्न अभ्यास एवं प्रयास करने पड़ते हैं :

1.        श्रवण क्षमता का विकास

2.        अल्प अवधि के स्मरण का अभ्यास

3.        अंतरण का प्रयास

4.        बोलने का प्रयास

इस प्रकार, निर्वचन के लिए कई गुण अपेक्षित हैं एवं इसके लिए काफी अभ्यास की जरूरत पड़ती है।

साहित्येतर विषयों की अनुवाद समीक्षा

                                                  साहित्येतर विषयों की अनुवाद समीक्षा 

विश्व के संपूर्ण साहित्य में सर्जनात्मक साहित्य अर्थात उपन्यास, कहानी, कविता एवं नाटक आदि की मात्रा अत्यल्प है। साहित्यिक पाठ कुल संपदा का केवल 10% ही है। ज्यादातर पाठ या कार्य भाषा के साहित्येतर विषयों में संपादित होते हैं अर्थात साहित्येतर विषयों का अनुपात कुल साहित्य का 90% है। सारे व्यापार, विज्ञान, सामाजिक विज्ञानं की भाषा साहित्येतर विषय के अंतर्गत ही अति है। आज हम खुद को केवल साहित्यिक अनुवाद तक सीमित रखेंगे तो भाषिक, सामाजिक एवं प्रकार्यगत उन स्थितियों से अलग हो जाएँगे जिनमें भाषा अपनी विभिन्न भूमिकाओं के साथ अलग-अलग रंग और तेवर में हमारे बीच स्थित है।

आधुनिक समाज उपभोक्ता सापेक्ष है इसलिए आज अनुवाद भावपरक (emotive text) से तथ्यपरक (factual or informative text) की ओर उन्मुख हुआ है। साहित्येतर विषय तथ्यात्मकता की बात पर ज्यादा ध्यान देते हैं। फिर भी इन कथ्यों एवं तथ्यों को लक्ष्य भाषा में संप्रेषित करने का कार्य उतना आसान नहीं है। साहित्येतर अनुवाद समीक्षा की दो दिशाएँ होती हैं :

1.        पाठपरक

2.        प्रक्रियापरक

इन्हीं दो दिशाओं को ध्यान में रखकर साहित्येतर अनुवाद की समीक्षा की जाती है। इसमें समीक्षक देखता है कि पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है या नहीं। कई बार एक बहस में तथ्यात्मक चीजों को प्रदर्शित करने का ढंग दूसरी या लक्ष्य भाषा से भिन्न होता है; जैसे फ्रेंच भाषा में आंकड़ों में अल्प विराम (,) दशमलव का प्रदर्शित करता है। ऐसी चीजों का भी ध्यान रखना होता है।

दिलीप सिंह अनुवाद समीक्षा के अंतर्गत साहित्येतर पाठ की अनुवाद समीक्षा करने के लिए कुछ सोपान निर्धारित किये हैं। ये सोपान निम्लिखित हैं :

1.        पारिभाषिक शब्दावली की अनुवाद समीक्षा

2.        अभिव्यक्ति क्षमता की दृष्टि से अनुवाद समीक्षा

3.        अंग्रेजी प्रभाव की अनुवाद समीक्षा

4.        साहित्येतर अनुवाद की दो दिशाएँ (सरकारी एवं गैर सरकारी) एवं अनुवाद समीक्षा

5.        साहित्येतर अनुवाद की पाठपरक समीक्षा

6.        साहित्येतर अनुवाद की प्रकियापरक समीक्षा

7.        संप्रेषण और अनुवाद

इस प्रकार, दिलीप सिंह द्वारा सुझाएँ गए सोपानों के आधार पर हम सहित्य या साहित्येतर अनुवाद की समीक्षा करते हैं।

अनुवादक की स्थानीयपरक सीमाएँ

                                                      अनुवादक की स्थानीयपरक सीमाएँ


प्रत्येक जगह, राज्य, देश और भौगोलिक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, लोकमान्यताएँ, रीति-रिवाज तथा प्रचलन एवं विश्वास होते हैं। इन सभी व्यवहारों को व्यक्त करने की अपनी रीति-नीति और भाषिक प्रयुक्तियाँ होती हैं। जब ये प्रयुक्तियाँ अपनी सीमा से अतिक्रमित होकर अन्यत्र प्रयोग में आती हैं तो अपने मूल अर्थ की अपेक्षा भिन्न अर्थ की अभिव्यंजना भी करती पायी जाती हैं। हिंदी में चष्टा का अर्थ कुछ और मराठी में कुछ है। मराठी में इसका अर्थ मजाक हो जाता है। हिंदी का बराबर दक्षिण में सही के लिए उपयुक्त होता है। अमेरिका में गैस (Gas) का अर्थ पेट्रोल है जबकि भारत में इसे तरल के गैसीय (हवा) रूप को कहा जाता है। इस प्रकार अनुवादक को अनुवाद प्रक्रिया में क्षेत्रीयता और स्थानीयपरक अभिव्यक्तियों की सीमाओं से रूबरू होना पड़ता है।

भारत जैसे बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषी देश में अनेक लिखित एवं मौखिक रूप में अनेक भाषाएँ हैं। भले ही वे सरकारी तौर पर अधिसूचित न हों लेकिन जन-व्यवहार में प्रयुक्त होती है। इनमें अपनी-अपनी आंचलिकता के अनुसार संकल्पनात्मक विशिष्टियों के प्रयोग मिलते हैं जिनका अनुवाद करना सरल नहीं होता है। उदहारण के तौर पर फणीश्वर नाथ रेणु जी की रचनाओं का अनुवाद बहुत ही दुष्कर है। इसके लिए केवल हिंदी भाषा का ज्ञान ही नहीं जरूरी है बल्कि अनुवादक को पाठ के क्षेत्र विशेष में हिंदी के प्रयोग, मुहावरों, लोकोक्तियों से भी परिचित होना पड़ेगा। इस प्रकार अनुवादक को अच्छे अनुवाद के लिए स्थानीयपरक सीमाओं को जानना एवं उसकी स्थितियों से परिचित होना पड़ता है और इसके लिए स्रोत भाषा के किसी विशेषज्ञ या भाषा-भाषी की सहायता लेना अपेक्षित है। बिना स्थानीयपरक सीमाओं को जाने अच्छा अनुवाद संभव नहीं है।

अनुवाद मूल्यांकन की आवश्यकता एवं प्रविधि

                                           अनुवाद मूल्यांकन की आवश्यकता एवं प्रविधि

अनुवाद मूल्यांकन एक ज्ञानात्मक और अनुप्रायोगिक विधा है जिसमें अनुवाद कौशल का मूल्यांकन किया जाता है। इसमें मूलपाठ के परिप्रेक्ष्य में अनूदित पाठ के गुण-दोषों का विवेचन किया जाता है। यह विवेचन अनुवाद कार्य की निष्पत्ति से होता है जो अनुवाद संशोधन और स्तर के संवर्धन में सहायक होता है। इस दृष्टि से मूल पाठ के कथ्य की पुनर्रचना का परीक्षण ही अनुवाद मूल्यांकन है जिसमें भाषाई इकाइयों के संयोजन और सृजन में निहित गुण-दोषों की जानकारी मिलती है। अनुवाद मूल्यांकन अनूदित कृतियों के प्रति सही अर्थों में पाठक वर्ग की सहिष्णुता लाने का महत् प्रयास है और इससे अंतत: अनुवाद की ही महत् प्रतिष्ठा होती है।

मूल्यांकन शब्द मूल्य+अंकन से निर्मित समस्त पद है जिसका कोशगत अर्थ है – किसी वस्तु की उपयोगिता, गुण, महत्व आदि का होने वाला अंकन। अनुवाद मूल्यांकन बहुत ही आवश्यक है क्योंकि इससे अनुवाद की गुणवत्ता का पता लगता है। हमें इससे अनुवाद की उपयोगिता, गुण एवं महत्व का भी भान होता है। इसमें मूल्यांकनकर्ता जाँच के बाद अनुवाद की गुणवत्ता, उसकी उपलब्धियों एवं अनुपलब्धियों पर टिप्पणी करता है। इससे हमें पता चलता है कि कौन-सा अनुवादक श्रेष्ठ है और कौन-सा अनुवाद उत्तम है। इसमें देखा जाता है कि अनूदित पाठ मूल पाठ के स्तर का है या नहीं।

अनुवाद मूल्यांकन के मुख्य प्रकार हैं :

1.       पुनरनुवाद आधारित मूल्यांकन, एवं

2.       अनुक्रिया आधारित मूल्यांकन

पुनरनुवाद आधारित मूल्यांकन में अनूदित पाठ को पुन: स्रोत भाषा में अनुवाद किया जाता है और देखा जाता है कि अनूदित पाठ का पुनरनुवाद मूल पाठ के अनुवाद से कितना समान अथवा भिन्न है। यही इस पद्धति में मूल्यांकन का आधार होता है। अनुक्रिया आधारित अनुवाद मूल्यांकन में पाठक की अनुक्रिया (response) को देखा जाता है। अगर मूल पाठ की तरह ही अनूदित पाठ का पाठक पर प्रभाव पड़े तो उसे अच्छा माना जाता है। सैद्धांतिक दृष्टि से यह मूल्यांकन प्रक्रिया बड़ी तर्क संगत प्रतीत होती है पर व्यवहार में यह उतना ही असफल और दुस्साध्य है। आज तक कोई ऐसा उपकरण या प्रविधि नहीं है जिससे इस अनुक्रिया अथवा प्रभाव समता को मापा जा सके।

 नाइडा एवं टेबर ने अनुवाद मूल्यांकन के तीन आधार बताये हैं : 1। संदेश का सहज संप्रेषण, 2। पठनीयता द्वारा बोधन, एवं 3। अनुवाद की पर्याप्तता से पाठक की अभिरुचि। ये आधार अच्छे अनुवाद की बात तो करते हैं, किंतु मूल्यांकन द्वारा अच्छे-बुरे अनुवाद में भेद स्पष्ट नहीं कर पाते क्योंकि इन अधरों में वैज्ञानिकता एवं वस्तुनिष्ठता नहीं मिलती। इसके बाद इन दोनों विद्वानों ने अनुवाद मूल्यांकन के लिए निम्नलिखित आधार प्रस्तावित किये हैं जो अनुक्रिया संबंधी प्रभाव को मापने के लिए प्रायोगिक प्रतीत होते हैं। इनके प्रकार निम्नवत हैं :

1.       क्लोज़ (close) परीक्षण

2.       बोधन (comprehension) परीक्षण

3.       सस्वर पठन (loud reading)

4.       उत्तम अनुवाद से तुलना अर्थात् तुलनात्मक परीक्षण (comparison with other translated texts)

इस प्रकार, अनुवाद मूल्यांकन की दृष्टि से अच्छे अनुवाद में चार गुणों का होना अनिवार्य मन गया है – 1. मूलनिष्ठता, 2. पठनीयता, 3. बोधगम्यता, 4. प्रयोजन सिद्धि। इन सभी के आधार पर हम अनूदित कृति का मूल्यांकन कर सकते हैं। अनुवाद मूल्यांकन में भाषिक आधार एवं भाषेतर आधार को भी परखा जाता है। इस प्रकार अनुवाद मूल्यांकन की कई प्रविधियाँ हैं जिनमें से कुछ की चर्चा हमने ऊपर की।

भक्ति साहित्य का अस्मिता-विमर्शमूलक अनुकूलन

                                                         भक्ति साहित्य का अस्मिता-विमर्शमूलक अनुकूलन


भक्ति साहित्य ने स्वदेशी भाषा में रचनाओं को बढ़ावा दिया। भक्ति साहित्य के दौरान सभी जगह संतो एवं कवियों ने लोगों की आम भाषा में साहित्य की रचना की एवं आमजन की भावनाओं एवं उनकी अस्मिता का खयाल रखा। भक्ति साहित्य के दौरान संतों, कवियों ने संस्कृत के भागवत, रामायण, महाभारत एवं पुराणों को लोगों की आम भाषा में अनूदित किया। लोगों की अस्मिता का मान रखा एवं उनके लोक संस्कृति एवं सभ्यता के अनुसार महान काव्यों का अनुवाद-अनुसृजन किया। इससे इन भाषाओं का मान-सम्मान बढ़ा और उनमें साहित्य संपदा भी बढ़ी। इस तरह से देखा जय तो भक्ति साहित्य अस्मिता-विमर्शमूलक अनुकूलन था। संस्कृत ही केवल समृद्ध भाषा न रही तथा धर्म अभिजात्य वर्ग से सामान्य वर्ग तक इसी भक्ति साहित्य के बदौलत पहुँच पाया।

भारतीय दुभाषिए और लोक साहित्य

                                            भारतीय दुभाषिए और लोक साहित्य

1857 के विद्रोह को औपनिवेशिक सूचना संग्रहण की विफलता मन गया। इसके बाद अंग्रेजों ने विधि, राजस्व एवं प्राचीन ग्रंथों के अतिरिक्त देशी लोकसाहित्य के अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया। इसके बाद जनसाधारण, उनकी धारणाओं एवं स्थानीय रीति-रिवाजों को जानने में दिलचस्पी बढ़ी।

भारतीय दुभाषिए अंग्रेज अधिकारियों के साथ कार्य करते थे और बड़ी सत्यनिष्ठा से अनुवाद का कार्य करते थे। लोकसाहित्य के संकलन एवं आलोचनात्मक व्याख्या में इनकी भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। औपनिवेशिक अधिकारियों ने जो कुछ अभिव्यक्त एवं प्रस्तुत किया उसमें भारतीय दुभाषिए की अहम् भूमिका रही है। भारतीय दुभाषिए औपनिवेशिक अधिकारियों एवं आमजन के बीच सेतु का कार्य किया। लोक साहित्य के अनुवाद एवं उसके संरक्षण से इस संपदा का संरक्षण हुआ। इन्हीं के कार्यों पर आज कई अध्ययन हुए एवं हो रहे हैं। 

मध्यकालीन भारत में उभरते धार्मिक आंदोलनों में अनुवाद की भूमिका

                           मध्यकालीन भारत में उभरते धार्मिक आंदोलनों में अनुवाद की भूमिका  


हिंदू धर्म मध्यकालीन भारत में बहुत बड़े परिवर्तन के दौर से गुजरा। मध्यकालीन भारत में बहुत सारे धार्मिक आंदोलन हुए जिससे धार्मिक साहित्य संभ्रांत लोगों से आम जनता तक पहुँचा। महान देवों और जटिल प्रथाएँ भावुक और उत्साहपूर्ण भक्ति के माध्यम से एक भगवान वाली प्रथा में बदली। कीर्तन से भरा हुआ भक्तिपूर्ण धर्म, आत्म समर्पण और ईश्वर के प्रति परमानंद के गीत के रूपों में नई भक्ति ने लोगों के बीच समानता और भाईचारे के विचारों को बढ़ावा दिया। वास्तव में, आधुनिक भारतीय देशी भाषाओं के साहित्य का विकास इस धार्मिक-सह-सामाजिक आंदोलन से काफी प्रभावित था। ई अवधि के दौरान ग्रंथों के अनुवाद में काफी तेजी आई एवं देशी भारतीय भाषाओं में कई गीतों एवं ग्रंथों की रचना हुई। भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप, संस्कृत भगवत पुराण पूरे भारत में फैल गया और बाद में लोगों के रोजमर्रा की भाषाओं में उसका अनुवाद किया गया। मराठी में ज्ञानेश्वर भागवत एक स्वतंत्र रचना की तरह हो गयी। इस समय कई हिंदू ग्रंथों एवं महाकाव्यों को कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया।

मध्यकालीन भारत में उभरते धार्मिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप भारतीय भाषाओं में अनुवाद की एक बहुत समृद्ध परंपरा शुरू हुई। तमिल में महाभारत का अनुवाद 10वीं शताब्दी, तेलुगु में 11वीं शताब्दी में अनुवाद हुआ। तेलुगु में रामायण का अनुवाद 11वीं शताब्दी और तमिल में 12वीं शताब्दी में की गई। भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप भागवत पुराण का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। यह तेलुगु और बांग्ला में 15वीं शताब्दी, ब्रज, मराठी और फारसी में 16वीं शताब्दी, गुजराती और मलयालम में 17वीं और हिंदी में 19वीं शताब्दी में अनुवाद हुआ।

इन अनुवादों के चलते धार्मिक ग्रंथ एवं उनके संदेश आम जनमानस तक पहुँचा। संतों एवं कवियों ने अनुवाद के द्वारा न केवल भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया बल्कि धर्म का भी प्रचार किया। मध्यकाल में तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस भी अनुवाद ही था जिसने भारतीय मानस को पुन: संचरित किया। 

उपाश्रित साहित्य के अनुवाद के संबंध में अनुवाद में प्रतिरोध की राजनीति

                              उपाश्रित साहित्य के अनुवाद के संबंध में अनुवाद में प्रतिरोध की राजनीति 


1970 के दशक तक आते-आते ब्रिटेन में बसे युवा इतिहासकारों के एक समूह ने दक्षिण एशिया , उसके समाज और इतिहास लेखन पर विमर्श की एक श्रृंखला प्रारंभ की। इस समूह का नेतृत्व ‘सबअल्टर्न स्टडीज’ के संस्थापक रणजीत गुहा ने किया। इस समूह में इतिहास एवं विभिन्न ज्ञानानुशासनों के विद्वान थे जैसे ज्ञान प्रकाश, दीपेश चक्रवर्ती, सुमित सरकार, डेविड अर्नोल्ड, डेविड हार्डीमान, गौतम भद्र, पार्थ चटर्जी, ज्ञानेंद्र पांडेय, सुमित सरकार, शाहिद अमीन आदि। यह समूह ससेक्स विश्वविद्यालय से शुरू हुआ और इसमें मुख्यतः रणजीत गुहा के शिष्य ही थे। सबअल्टर्न का ही हिंदी अनुवाद उपाश्रित है।

उपाश्रित साहित्य भारतीय एवं गैर भारतीय लेखकों के द्वारा भारत की उपेक्षित आबादी के बारे में लिखा गया साहित्य है। उपाश्रित समूह में दलित, आदिवासी, और हाशिये पर पड़े अन्य लोग आते हैं। इसे हाशिये का साहित्य या उपेक्षितों का साहित्य भी कहते हैं। दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और अल्पसंख्यक समुदाय अध्ययन जैसे क्षेत्र उपाश्रित अध्ययन से ही निकले हैं। उपाश्रित साहित्य को दो भागों में बांटा जा सकता है : 1. एक उन लोगों का साहित्य जो स्वयं उपाश्रित समुदाय से आते हैं, और  2. बाह्य लोगों द्वारा लिखा गया उपाश्रितों की स्थिति पर साहित्य। उपाश्रित समुदाय से आने वाले लोगों का साहित्य उनका खुद का जिया हुआ साहित्य होता है और दुसरे वर्ग जो उपाश्रित समुदाय से नहीं आते, उनका साहित्य देखा हुआ साहित्य होता है।

उपाश्रित साहित्य का अनुवाद बहुत महत्वपूर्ण है तथा इसी से यह अध्ययन एक भाषा की परिधि से बाहर अन्य लोगों तक पहुँच पाया है। महाश्वेता देवी का साहित्य आज विश्व में चर्चित है तो उसके पीछे गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक का बहुत योगदान है। अपश्रित साहित्य के अनुवाद के संबंध में अनुवाद में प्रतिरोध की राजनीति भी होती है। उपश्रितों को बोलने ही नहीं दिया जाता क्योंकि यह आवाज मुख्य धारा की शक्ति को हिला सकती है। उनके पास मुख्यधारा द्वारा उपभोग की जाने वाली प्रसन्नता एवं सुख-साधन का कोई अधिकार नहीं है। स्पीवाक का 1988 में प्रकाशित निबंध “कैन दि सबअल्टर्न स्पीक ?” ने कई प्रश्न उठाये हैं। ये प्रश्न आज उपाश्रितों के बोलने के अधिकारों और स्वतंत्रता के संबंध में संस्थापक प्रश्न माने जाते हैं। उपाश्रित साहित्य जितने भी अनूदित हुए हैं उनमें मुख्य धारा या शक्तिशाली वर्ग के प्रति प्रतिरोध का भाव अवश्य दिखता है।

‘भारत में उपनिवेशवाद और अंग्रेजी भाषा नीति’

                                     भारत में उपनिवेशवाद और अंग्रेजी भाषा नीति

भारत में ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान अंग्रेजी भाषा को ही राजकीय भाषा के तौर पर प्रयोग किया जाता था। औपनिवेशिक शक्तियाँ जैसे इंग्लैंड, फ़्रांस, पुर्तगाल आदि जहाँ भी गए वे अपनी भाषा का प्रयोग करते थे तथा अपने उपनिवेश में अपनी भाषा को राजकीय भाषा के रूप में स्थापित किया। भारत में इंग्लैंड का प्रभुत्व स्थापित हुआ और इसी के साथ भारत में अंग्रेजी भाषा को मुख्य भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

भारत में अंग्रेजी भाषा की नीति को समझने के लिए हमें औपनिवेशिक काल से प्रारंभ करना होगा। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजी को बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। लार्ड मैकाले का प्रसिद्ध ‘मिनट्स ऑन इंडियन एजुकेशन’ (English Education Act, 1835) में अंग्रेजी को लेकर उनकी दृष्टि एवं योजना स्पष्ट दिखती है। उसके अनुसार उन्होंने भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू की कि भारतीय दिखने में तो भारतीय जैसे रहे लेकिन मानसिक स्तर पर नए अंग्रेज बन गए। उसका उद्देश्य ऐसे वर्ग को तैयार करना था जो नस्ल और रंग में भारतीय हों किंतु रुचि, मत, नैतिकताओं एवं बुद्धि से अंग्रेज हों। वे ऐसा करने में बहुत हद तक सफल भी रहे। अंग्रेजों ने आरंभ अंग्रेजी को लेकर  अपनी महत्वाकांक्षी शैक्षिक नीतियाँ चलाई लेकिन वे कुछ खास कारगर साबित नहीं हुईं।   वे केवल अंग्रेजी ज्ञान पर ही बल देते थे लेकिन बाद में उन्हें अपनी नीतियों में बदलाव किया। अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित शैक्षिक संस्थानों ने देश के इतिहास, साहित्य एवं भाषाओं का अध्ययन शुरू किया लेकिन अध्ययन की भाषा सदैव अंग्रेजी ही रही। उन्होंने शिक्षा का माध्यम पूर्णत: अंग्रेजी ही रखा। संस्कृत, फारसी, हिंदुस्तानी और अंग्रेजी ये चार भाषाएँ हैं जिन्होंने औपनिवेशिक काल से लेकर स्वतंत्रता तक का समय देखा है। संस्कृत शास्त्रीय पांडुलिपियों की भाषा बनकर सिमट गयी थी और फारसी धीरे-धीरे कार्यालयों की भाषा बन गयी। 1799 में कार्यालयों की भाषा के लिए फारसी के साथ-साथ हिंदुस्तानी को भी अनिवार्य कर दिया गया। 1838 में अंग्रेजी ने फारसी का स्थान ले लिया। अंग्रेजी भाषा का शिक्षण एवं अभिग्रहण ब्रिटिश भारत में भाषा और साहित्य दोनों में ही रहा। इस प्रकार, अंग्रेजी ब्रिटिश उपनिवेश काल में भारत की राजकीय भाषा बन गयी और यह स्थिति आज भी बनी हुई है।

शब्दार्थ, ध्वन्यार्थ और पाठ संदर्भित अर्थ

                                                   शब्दार्थ, ध्वन्यार्थ और पाठ संदर्भित अर्थ

शब्दार्थ, ध्वन्यार्थ और पाठ संदर्भित अर्थ का अन्वेषण हर अनुवादक का प्राथमिक उद्देश्य होता है। अनुवाद करते समय शब्दों के अर्थों की आवश्यकता तो होती ही है लेकिन केवल शब्दार्थ से अनुवाद का कार्य अच्छी तरह संपन्न नहीं हो सकता। अनुवाद में ध्वन्यार्थ की भी अपनी महत्ता है। ध्वन्यार्थ वह अर्थ है जिसका बोध वच्यार्थ से न होकर केवल ध्वनि य़ा व्यंजना से होता है।  भाषा में अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना- तीनों शब्द शक्तियों से पोषित ध्वन्यार्थ छिपे रहते हैं। इनको अच्छी तरह से समझना तथा उसे लक्ष्य भाषा में समतुल्य ध्वन्यार्थ से संप्रेषित करना ही अनुवादक का कर्तव्य है। प्रयुक्ति के बाद शब्दों की अपनी भूमिका और स्वायत्तता गौण हो जाती है, उसका पाठ सम्मत अर्थ महत्वपूर्ण हो जाता है। पाठ संदर्भित अर्थ भी अनुवाद के लिए बहुत उपयोगी एवं जरूरी होता है। एक ही शब्द के कई अर्थ होते हैं, कौन-सा शब्द कहाँ प्रयोग होगा यह बिना संदर्भ को समझे-जाने नहीं बताया जा सकता। अंत: एक कुशल अनुवाद के लिए शब्दार्थ, ध्वन्यार्थ और पाठ संदर्भित अर्थ तीनों ही बहुत महत्वपूर्ण हैं।

अनुवादक की कथ्य विषयक योग्यता

                                                          अनुवादक की कथ्य विषयक योग्यता

अनुवाद कर्म पूरी तरह अनुवादक के दायित्व-बोध और विवेक पर आधारित होता है। अनुवादक का यह दायित्व कथ्य से ही आरंभ होता है। हमें ज्ञात है कि स्रोत भाषा में प्रतिपादित विषय ही कथ्य कहलाता है। स्रोत भाषा में प्रतिपादित विषय का ज्ञान अनुवादक को होना चाहिए तथा इससे संबंधित पारिभाषिक शब्दावली का बोध भी अनुवादक को होना चाहिए, यह अनुवाद के लिए प्रथम शर्त है। कथ्य चाहे साहित्यिक पाठ का हो अथवा साहित्येतर पाठ का, हरेक कथ्य में शब्दावली का अपना विशेष महत्व होता है। साहित्यिक अनुवाद में  इसमें अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना- तीनों शब्द शक्तियों से पोषित ध्वन्यार्थ छिपे रहते हैं। इसलिए अनुवादक का सबसे बड़ा दायित्व है कि वह मूल कथ्य को पूरी तरह से समझे। कथ्य के विविध आयाम, उसके शब्द प्रयोग एवं अभिव्यक्ति कौशल का भलीभांति विश्लेषण करे।  

विभिन्न अनुवाद संसाधन एवं कंप्यूटर कोश

                                                      विभिन्न अनुवाद संसाधन एवं कंप्यूटर कोश  

अनुवाद प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार के संसाधन प्रयोग में लाये जाते हैं। संसाधनों के उपयोग से अनुवाद प्रक्रिया अनुवादक के लिए आसान हो जाती है और इससे अनुवादक को बहुत सहायता मिलती है। आजकल विभिन्न अनुवाद संसाधन उपलब्ध हैं; कुछ पारंपरिक हैं जैसे द्विभाषी शब्द कोश, इनसाइक्लोपीडिया, विश्वकोश आदि। अब नए एवं प्रौद्योगिकी आधारित संसाधन भी उपलब्ध हैं जैसे ऑनलाइन अनुवाद वेबसाइट, ऑनलाइन शब्दकोश आदि। वर्तनी जाँचक (spell checker), व्याकरण सुधारक (grammar corrector) आदि भी अनुवाद संसाधन मौजूद हैं जिनसे अनुवाद कर्म में काफी सहायता मिलती है। वाक्य विन्यास ठीक करने के लिए भी लिए कई सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जिनसे वाक्य विन्यास में सही सुझाव भी मिलते हैं। माइक्रोसॉफ्ट वर्ड (word) में वर्तनी एवं व्याकरण जाँचने के लिए संसाधन अन्तर्निहित हैं।  

कंप्यूटर कोश भी अनुवाद कर्म के लिए बहुत उपयोगी संसाधन है। हम जानते हैं कि अनुवाद कार्य के लिए कोश अत्यंत ही आवश्यक संसाधन होता है। पारंपरिक एवं पुस्तकीय शब्दकोशों की अपेक्षा इनका प्रयोग सुगम और सरल है। इनके इस्तेमाल से शब्दों को खोजने में समय कम लगता है इसलिए इसका प्रयोग कम श्रमसाध्य है। इनके प्रयोग से आसानी से शब्द के अर्थ के साथ-साथ उनका संदर्भगत प्रयोग भी जाना जा सकता है। ऑनलाइन अनुवाद वेबसाइट, ऑनलाइन शब्दकोश का इस्तेमाल भी काफी आसान है लेकिन इनके प्रयोग हेतु इंटरनेट की आवश्यकता पड़ती है। कंप्यूटर कोश की सहूलियत यह होती है कि इसके लिए आपको इंटरनेट की जरूरत नहीं होती है। इन कंप्यूटर कोशों को मोबाइल पर भी डाउनलोड करके उपयोग में लाया जा सकता है। इस प्रकार कंप्यूटर कोश उपयोग की दृष्टि से काफी सरल है और एक छोटे से मोबाइल में कई प्रकार के कंप्यूटर कोश रखे जा सकते है एवं उनका इस्तेमाल हम कहीं भी कभी भी कर सकते हैं।

लोकोक्तियों एवं मुहावरों के अनुवाद में आने वाली समस्या

                                            लोकोक्तियों एवं मुहावरों के अनुवाद में आने वाली समस्या

भाषा में प्रभाव और चारुता उत्पन्न करने की मंशा से लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग होता है। लोकोक्तियों का संबंध हमारे लोक-जीवन से होता है। ये लोगों के दैनिक जीवन में व्यवहार में लाई जाती हैं। इसलिए लोकोक्तियों के शब्द और अर्थ में भेद नहीं होता है। लेकिन ये लोक जीवन के अनुभवों एवं उनकी संस्कृति से जुड़ी होती हैं। मुहावरों की मुख्य रूप से दो विशेषताएँ होती हैं; पहली विशेषता यह है कि उनमें चित्रात्मकता होती है एवं दूसरी कि उनका शाब्दिक अर्थ से भिन्न अर्थ होता है। कई बार मुहावरों एवं लोकोक्तियों में भेद करना मुश्किल होता है।

लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे भाषा के अनुभव मूलक प्रयोग पर आधारित होते हैं। इसलिए इनका प्रयोग औपचारिक भाषा की अपेक्षा संवेदनापरक भाषा अधिक होता है। साहित्य एवं पत्रकारिता में इनका प्रयोग अधिक होता है। लोकोक्तियों एवं मुहावरों के शब्दश: अनुवाद करने से मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। इसके लिए अनुवादक को दो भाषाओं (स्रोत एवं लक्ष्य भाषा) का उचित ज्ञान होना चाहिए। शब्दश: अनुवाद अनुवाद के बदले भावानुवाद को स्थान देना चाहिए। भावानुवाद की प्रक्रिया में अर्थ के अनुरूप मुहावरों की तलाश की जाती है। इसमें शब्द हूबहू समान नहीं होते लेकिन व्यंजना समान भावों की होती है। अगर स्रोत भाषा की लोकोक्ति या मुहावरे का समतुल्य कोई लोकोक्ति या मुहावरा लक्ष्य भाषा में हो तो उसका प्रयोग अनुवाद कर्म के लिए करना चाहिए। कई बार एक मुहावरे के लिए लक्ष्य भाषा में कई मुहावरे होते हैं; जैसे ‘To leave no stone unturned का हिंदी में कई अनुवाद संभव है जैसे – एड़ी चोटी का जोर लगाना, खून पसीना एक करना, जमीन आसमान एक करना, आकाश पाताल एक करना आदि। इस स्थिति में संदर्भ के अनुसार मुहावरों का चयन जरूरी है। इससे अनुवाद में स्रोत भाषा की भांति लक्ष्य भाषा में भी चित्रात्मकता का बोध होता है तथा अनुवाद सजीव एवं संप्रेषणीय बन जाता है। यह कार्य उतना सरल नहीं है क्योंकि इसके लिए अनुवादक को दोनों भाषाओं पर महारत हासिल करनी होती है एवं दोनों संस्कृतियों के लोक जीवन एवं साहित्य से परिचय अपरिहार्य है। इनके अनुवाद में अनुवादक को लोकोक्तियों एवं मुहावरों के शब्दार्थ, ध्वन्यार्थ और पाठ संदर्भित अर्थ को भी ध्यान में रखकर अनुवाद करना होता है।

अनुवादक की अनुवाद दृष्टि एवं भाषिक दायित्व

                                                   अनुवादक की अनुवाद दृष्टि एवं भाषिक दायित्व


अनुवाद कर्म में अनुवादक की अनुवाद दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस दृष्टि से ही अनुवादक अनुवाद के लिए पाठ का चयन करता है तथा इसी से ही अनुवाद का उद्देश्य, अनुवाद की विधि, अनुवाद का भाषिक रूप तय होता है। अनुवादक को प्रगतिशील साहित्य लेना है या रामायण/महाभारत से जुड़े पाठों का अनुवाद करना है, यह सब कुछ उसकी अनुवाद दृष्टि ही तय करती है। वह इसी आधार पर अपनी पुनर्रचना का भाषा-फलक और रूप-विधान निर्धारित करता है। इसी प्रकार अगर कोई प्रकाशक कोई कृति का अनुवाद करना चाहता है तो उसके लिए व्यावसायिक लाभ एवं हित सर्वोपरि होते हैं।  ब्रिटिश उपनिवेश काल के दौरान हुए अनुवादों की एक विशेष प्रकार की अनुवाद दृष्टि थी जिस अनुवाद का उद्देश्य खुद को बेहतर और भारतीय मानसिकता को समझने का प्रयास था। ब्रिटिश विद्वानों ने इसी अनुवाद दृष्टि से भारतीय ग्रंथों का अनुवाद किया था। बाद में उनके विरोध में भारतीय विद्वानों ने उन्हीं ग्रंथों का भारतीय अनुवाद दृष्टि से अनुवाद किया। अनुवाद दृष्टि अनुवाद की प्रक्रिया में अनुवादक का कदम-कदम पर दिशा निर्देश करती रहती हैं। इस प्रकार, अनुवाद के कार्य में ‘अनुवाद-दृष्टि’ जैसा मूल्य-बोधित पद बड़ी अहम भूमिका का निर्वहन करता है। अनुवाद दृष्टि पद अनुवादक के संपूर्ण वैचारिक अस्तित्व को रेखांकित करता है।

भाषिक दायित्व मनुष्य मात्र विशेषकर अनुवादक के लिए अत्यधिक अर्थगर्भित है। हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है अंत: अनुवादक का दायित्व है कि स्रोत भाषा की प्रकृति के अनुसार ही अनुवाद कार्य को करें। अनुवाद की भाषा जितनी सरल एवं बोधगम्य होगी, अनुवाद उतना ही पठनीय एवं संप्रेषणीय होगा। अनुवादक का भाषिक दायित्व है कि वह स्रोत भाषा के कठिन से कठिन और लंबे वाक्यों को लक्ष्य भाषा में छोटे एवं सरल वाक्यों से व्यक्त करे। वह लक्ष्य भाषा की संस्कृति के अनुसार ही शब्दावलियों का चयन करे। उसे स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा में कथ्य को समाना रखते हुए एक सामंजस्य बैठना पड़ता है।

भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम (Indian Copyright Act)

                                                       भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 

                                                              (Indian Copyright Act)


भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम सन् 1957 में पारित हुआ था जिसके तहत भारत में रचनाकारों, कलाकारों एवं सर्जकों की कापीराइट (प्रतिलिप्यधिकार या कृतिस्वाम्य) से संबंधित सारे अधिकार निर्धारित एवं संचालित होते हैं। इसके पूर्व भारत में 1914 में कापीराइट अधिनियम बना था। वह अधिनियम बहुत हद तक ब्रिटेन के 'इंपीरियल कापीराइट ऐक्ट (1911)' पर आधारित था। अंग्रेजों का यह कानून और उसके नियम भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के अनुच्छेद 18 (3) के अनुसार अनुकूलित कर लिए गए थे। यही नियम 1957 तक चलते रहे। सन् 1957 में नया कानून बनने पर पुराना कानून स्वत: निरस्त हो गया।

भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम (1957) के अमल में आने के बाद एक प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय स्थापित किया जो इसी कार्य के लिये नियुक्त एक रजिस्ट्रार के अधीन होता है। इस रजिस्ट्रार को केंद्रीय सरकार के नियंत्रण और निर्देशन में काम करना होता है तथा उसके कई सहायक होते हैं। प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय का मुख्य काम यह है कि वह एक रजिस्टर रखे जिसमें लेखक या रचनाकार के अनुरोध पर रचना का नाम, रचनाकार या रचनाकारों के नाम, पते और कापीराइट जिसे हो उसके नाम, पते दर्ज किए जाए।

प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय के साथ ही एक प्रतिलिप्यधिकार मंडल (कापीराइट बोर्ड) की भी स्थापना की गई जिसका कार्यालय प्रमुख भी रजिस्ट्रार ही होता है। इस मंडल को कई मामलों में दीवानी अदालतों के अधिकार प्राप्त हैं। रजिस्ट्रार के आदेशों के विरोध में इस मंडल में अपील भी की जा सकती है। प्रतिलिप्यधिकार मंडल का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का जज, या सेवानिवृत्त जज हो सकता है तथा उसको सहायता के लिए नियुक्त तीन व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है। तीनों व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि वे साहित्य और कलाओं के जानकार हों। मंडल के आदेशों के खिलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील भी किया जा सकता है।

रचनाकार को प्रतिलिप्यधिकार उसके जीवन भर तथा उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी को 60 वर्ष तक प्राप्त रहेगा। यह अधिकार हस्तांतरित भी किया जा सकता है।

भारत में अनुवाद प्रशिक्षण की आवश्यकता और व्यवस्था (Need of Translation Training in India and Status)

                                          भारत में अनुवाद प्रशिक्षण की आवश्यकता और व्यवस्था

भारत में अनुवाद प्रशिक्षण की अपरिहार्य आवश्यकता है। भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है और जब पूरी दुनिया आधुनिकता के इस दौर में एक-दूसरे के और करीब आ चुकी है और आपस में भाषायी लेन-देन बढ़ चुका है। इन परिस्थितियों में अनुवाद की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है और इसीलिए अनुवाद प्रशिक्षण अनिवार्य आवश्यकता बन चुकी है। अनुवाद प्रशिक्षण की आवश्यकता एवं व्यवस्था पर विस्तृत चर्चा करने से पहले हमारा यह जानना भी अपरिहार्य है कि अनुवाद प्रशिक्षण क्या है।

‘शिक्षण’ शब्द में ‘प्र’ उपसर्ग लगने से ‘प्रशिक्षण’ शब्द की निर्मिति हुई है। ‘प्र उपसर्ग उत्कर्ष, उत्कृष्ट, अतिशय, आगे, अधिक, गति, या, उत्पत्ति, व्यवहार आदि अर्थों में प्रयोग होता है। इस प्रकार, व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘प्रशिक्षण शब्द ‘अधिक या अतिशय शिक्षण को दर्शाता है। वास्तव में यह शिक्षण की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करता है। ‘प्रशिक्षण का सामान्य एवं व्यवहारिक अर्थ है – किसी कार्य को करने से संबंधित ज्ञान, अभ्यास, निपुणता/योग्यता को व्यवस्थित ढंग से एवं क्रमबद्ध तरीके से सीखना-सिखाना। अर्थात प्रशिक्षण का अर्थ ज्ञान एवं कौशल अर्जित करने से है। इस तरह प्रशिक्षण को किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए ज्ञान, कौशल एवं उसका व्यावहारिक प्रयोग सीखने की एक संगठित एवं सुव्यवस्थित प्रक्रिया कहा जा सकता है। अनुवाद प्रशिक्षण से तात्पर्य अनुवाद क्या है एवं इसकी क्या-क्या संकल्पनाएँ हैं सीखना नहीं है बल्कि विभिन्न अनुवाद किस प्रकार संपादित होते हैं उनका व्यावहारिक ज्ञान अर्जित करना है। अनुवाद प्रशिक्षण से अनुवादक की अनुवाद क्षमता एवं कौशल में उन्नयन होता है।

अनुवाद प्रशिक्षण की आवश्यकता इसलिए है कि व्यक्ति कम समय एवं उचित प्रयास से प्रशिक्षण के माध्यम से कुशल अनुवादक बन सकता है। आज भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में दुभाषिये एवं अनुवादकों की मांग बहुत अधिक है। कार्य करने से कुशलता आती है अर्थात कुछ लोग मानते हैं कि अनुवाद करते-करते व्यक्ति कुशल अनुवादक अपने अनुवाद अनुभव से बन ही जाता है लेकिन इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है। अनुवाद प्रशिक्षण अनुभवी विशेषज्ञों की मदद से संपन्न कराया जाता है। जो समस्या अनुवादक कई वर्षों में देखेगा वह विशेषज्ञों के अनुभव से सीख सकता है तथा उन समस्याओं का निस्तारण कैसे हो इसका भी संभव उत्तर जान पाता है। मनुष्य दूसरों अर्थात पूर्व के अनुभवों से सीखता है। अनुवादक भी पूर्व के अनुवादकों से सीख सकता है और कार्य कुशल बन सकता है। इससे उसके जीवन के कई वर्ष बच जाएँगे और वह पूर्ववर्ती कार्य को आगे बढ़ा सकता है।

भारत में अनुवाद प्रशिक्षण 20वीं सदी के अंतिम वर्षों में शुरू हुआ है। केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो अपने कई अनुवाद प्रशिक्षण कार्यशाला संचालित करता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) का इस दिशा में काफी सराहनीय प्रयास रहा है। अनुवाद को स्वतंत्र अध्ययन का क्षेत्र मानते हुए विश्वविद्यालय ने सन् 2007 में ‘अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ’ की स्थापना की। सन् 2009 से विद्यापीठ में पूर्णकालिक अनुवाद प्रशिक्षण एवं ‘अनुवाद अध्ययन में एम। ए।’ की पढ़ाई शुरू हुई और अब दूर शिक्षा से भी इस कार्यक्रम का संचालन होता है। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (MGAHV), वर्धा का भी इसमें उल्लेखनीय योगदान रहा है तथा अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ सन् 2003 से ही अनुवाद में प्रशिक्षण एवं अनुवाद में एम।ए। कार्यक्रम का सफल संचालन कर रहा है। भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages) के अंतर्गत भारतीय अनुवाद मिशन का भी अहम योगदान है तथा इसके अंतर्गत सन् 3013 से अनुवाद प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न विश्वविद्यालयों के कई पाठ्यक्रमों जैसे एम। ए। हिंदी, अंग्रेजी, भाषाविज्ञान आदि में अनुवाद एक पाठ्यचर्या के रूप में शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विश्विद्यालयों में इसके सर्टिफिकेट एवं डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी चलाये जा रहे हैं। हालाँकि वर्तमान व्यवस्था मांग एवं गुणवत्ता के अनुसार पर्याप्त नहीं है। इस दिशा में और कार्य करने की जरूरत है।

नई शिक्षा नीति 2019 के अंतर्गत भी अनुवाद को बढ़ावा देने की सिफ़ारिश की गयी है तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) की तर्ज पर भारतीय अनुवाद एवं निर्वचन संस्थान (Indian Institute of Translation and Interpretation) की स्थापना की बात करता है (P484)। नई शिक्षा नीति में अनुवाद के प्रशिक्षण पर बहुत महत्व दिया गया है और हम आशा करते हैं कि भविष्य में अनुवाद प्रशिक्षण हेतु अन्य कई विश्वविद्यालय एवं संस्थान स्थापित किये जाएँगे तथा अन्य विश्वविद्यालयों में भी अलग से इसके लिए पाठ्यक्रम शुरू किये जाएँगे।

अनुवाद और रूपांतरण में प्रतिलिप्यधिकार की भूमिका (Role of Copyright in Translation and adaptation)

                                              अनुवाद और रूपांतरण में प्रतिलिप्यधिकार की भूमिका 

                                                 (Role of Copyright in Translation and adaptation)

 अनुवाद और रूपांतरण में प्रतिलिप्यधिकार या कॉपीराइट की अति महती भूमिका है। हर समाज एवं देश अपने सर्जकों, कलाकारों, रचनाकारों की सृजनात्मकता एवं उपलब्धि से गौरवान्वित होता है। साहित्य एवं कला के सृजन एवं प्रोन्नयन से संस्कृति की श्रीवृद्धि होती है। प्रतिलिप्यधिकार सर्जक, रचनाकार या कलाकार को कई तरह के अधिकार देता है जिससे वह अपनी रचना पर अपना अधिकार दर्शा सकें तथा उससे आर्थिक सहायता भी प्राप्त हो सके। प्रतिलिप्यधिकार सर्जक के अधिकारों एवं हितों की रक्षा करता है। अगर सही अर्थों में देखा जाय तो यह एक प्रकार का निषेधकारी अधिकार है। रचयिता या सर्जक को यह अधिकार है कि वह हर व्यक्ति को अनुमति लिये बिना उसकी प्रतिलिपि बनाने से रोक सकता है। प्रतिलिप्यधिकार उसे सुरक्षा प्रदान करता है कि उसकी कृति का किसी भी तरीके का अन्य व्यावसायिक प्रयोग नहीं किया जा सके। भारत में प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 के अनुसार प्रतिलिप्यधिकार लेखक, सर्जक या रचनाकार की मृत्यु के 60 वर्ष तक बना रहता है तथा उसके अगले कैलेंडर वर्ष से ही वह कृति प्रतिलिप्यधिकार से मुक्त मानी जाएगी। यूरोपीय एवं अमेरिका में यह अवधि 70 साल है। बर्न समझौता (1886) एवं यूनेस्को समझौता (1955) एवं यूनिवर्सल कापीराइट कॉनवेंशन (1955) के अनुसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिलिप्यधिकार को निर्धारित किया जाता है।

 

अनुवाद और रूपांतरण को हम किसी भी रचना या कृति का पुनरुत्पादन मान सकते हैं। अनुवाद और रूपांतरण से किसी भी रचना या कृति का व्यावसायिक प्रयोग हो सकता है इसीलिए अनुवाद और रूपांतरण के लिए भी मूल लेखक या रचनाकार की लिखित स्वीकृति अनिवार्य है।  अगर कोई अनुवादक स्वयं के लिए अथवा शोध कार्य हेतु अनुवाद करना चाहता है तो उसे रचनाकार की अनुमति आवश्यक नहीं है। लेकिन इस स्थिति में वह अपनी अनूदित कृति का उपयोग किसी भी व्यावसायिक कार्य के लिए नहीं करेगा। उसका उपयोग सर्वथा निजी ही रहेगा। अनुवाद के लिए अनुवादक रचना या कृति के प्रतिलिप्यधिकार धारक से अनुवाद हेतु अनुमति के लिए संपर्क करेगा। इसके पश्चात वह या अनुवाद प्रकाशित करने वाला प्रकाशक प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय में अनुवाद के लिए लाइसेंस के लिए आवेदन देगा। प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय उस भाषा में अनुवाद का अनुमति नहीं देता है जो उस देश में प्रयोग या प्रचलित न हो; उदाहरण के लिए अंग्रेजी से फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद की अनुमति भारत में मिलना मुश्किल है क्योंकि यहाँ फ़्रांसीसी भाषा सामान्यत: नहीं बोली जाती है। किसी रचना या कृति के प्रथम प्रकाशन के सात वर्ष तक अनुवाद का अधिकार साधारणतया नहीं मिलता है क्योंकि इससे शायद मूल कृति के व्यावसायिक हित बाधित हो सकते हैं और मूल रचनाकार अपने प्रकाशक के साथ अनुबंध में होता है। लेकिन अगर किसी कारण से ऐसा कोई अनुबंध मूल लेखक और प्रकाशन संस्था में नहीं हुआ हो तो इस स्थिति में भी अनुवादक को या अनुवाद प्रकाशक को अनूदित कृति के लिए भी मूल लेखक को रॉयल्टी देनी होगी। भारत में प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 के धारा 31 में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है।

रूपांतरण में रचना का माध्यम बदल जाता है जैसे अगर मूल रचना नाटक है तो इसका फिल्मांकन, संक्षेपण, नाट्येतर विधाओं में पुनरुत्पादन या पुनर्सृजन ही रूपांतरण है। अनुवाद एवं रूपांतरण में अनुवादक या रूपांतरणकार मूल कृति में फेर बदल नहीं कर सकता। और अगर उसे करना भी हो तो मूल रचनाकार से इसके लिए पूर्व लिखित अनुमति लेनी होगी। अन्यथा मूल लेखक कभी भी अनुवादक या फिल्मकार के खिलाफ न्यायालय जा सकता है तथा मान हानि का केस दर्ज करा सकता है। अनुवादक या फिल्मकार से वह हर्जाना भी वसूल सकता है एवं फिल्म का प्रदर्शन भी रोक सकता है।

 

भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 की धारा 13 में अनुवादक या रूपांतरणकार (फिल्मकार, नाटककार आदि) के भी अधिकार बताये गये हैं। अनूदित कृति या फिल्मकार द्वारा किसी कृति पर आधारित बनायी गयी फिल्म एक रचनात्मक कार्य है तथा अनुवादक या फिल्मकार को अपने अनुवाद या फिल्म पर पूरा प्रतिलिप्यधिकार होता है। यदि कोई व्यक्ति (अनुवादक, फिल्मकार) किसी रचना या कृति के पुनरुत्पादन हेतु प्रतिलिप्यधिकार प्राप्त कर लेता है तो उसे उस कृति के संबंध में निम्नलिखित अधिकार स्वत: प्राप्त हो जाते हैं :

i)                    अनूदित कृति का पुनरुत्पादन या किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में संग्रहण

ii)                  अनूदित कृति को सार्वजनिक रूप से जारी करना।

iii)                अनूदित कृति की सार्वजनिक प्रस्तुति

iv)                अनूदित कृति का अनुवाद करना

v)                  अनूदित कृति का रूपांतरण करना; यथा अनूदित कृति पर आधारित फिल्म निर्माण आदि।

 

अगर अनुवादक  किसी पत्रिका का उपसंपादक हो तो उस दौरान उसने कुछ अनूदित करके उक्त पत्रिका में प्रकाशित किया हो तो उस पर पत्रिका के स्वामी का अधिकार होगा। उल्लेखनीय है कि अगर इस प्रकार का कोई करार पत्रिका के स्वामी और उपसंपादक के बीच हुआ हो तभी यह नियम लागू होगा अन्यथा अनुवादक के पास ही सारे अधिकार होंगे। अगर अनुवादक किसी स्कूल या विश्वविद्यालय के अधीन कार्य करता हो तो उसके द्वारा किये गये अनुवाद पर अनुवादक का ही अधिकार होगा क्योंकि स्कूल या विश्वविद्यालय पढ़ाने के लिए पैसे देते हैं अनुवाद के लिए नहीं। अगर अनुवादक किसी प्रोजेक्ट या नियोजन के तहत अनुवाद कार्य करता है तो उस अनुवादक पर नियोजक संस्था का अधिकार होता है।

 

इस प्रकार, प्रतिलिप्यधिकार मूल लेखक या रचनाकार, अनुवादक एवं अन्य सृजनशील लोगों के अधिकारों, हितों की रक्षा करता है तथा उन्हें अपने कार्य के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।