भाषा व्यवस्था (Langue) एवं भाषा व्यवहार (Parole)
भाषा व्यवस्था (Langue system) एवं भाषा व्यवहार (Language use) की अवधारणा फ़र्दिनौंद
द सोस्युर (Ferdinand de Saussure) द्वारा प्रतिपादित ‘लौंग’ (Langue) एवं ‘पारोल’
(Parole) की संकल्पना में निहित है। इस संकल्पना का उल्लेख उनकी
पुस्तक ‘cours de linguistique générale’
(कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स) में किया
गया है। फ्रांसीसी भाषा का शब्द ‘लौंग’ (Langue) किसी भाषा विशेष को
सूचित करता है। भाषा-व्यवस्था अर्थात ‘लौंग’ किसी भाषा विशेष की संरचना
के निश्चित नियमों का निर्धारण करती है जो अमूर्त होते हैं। ‘लौंग’ अपनी प्रकृति में निश्चित, निर्धारित, परिगणनीय
एवं समरूपी (homogenous) होती है। भाषा-व्यवस्था अर्थात ‘लौंग’ समष्टिगत सत्ता है। उदाहरण के लिए,
हिंदी, अंग्रेजी, फ्रेंच आदि अलग-अलग भाषा-व्यवस्थाएँ (Langue) हैं।
भाषा व्यवहार या ‘पारोल’ (Parole)
किसी प्रयोक्ता या व्यक्ति द्वारा व्यवहृत भाषा प्रयोग है। ‘पारोल’ (Parole) वक्ता
का विशिष्ट वाक्-व्यवहार है। यह विषमरूपी होती है तथा इसमें व्यवहार
करने का स्थान, व्यक्ति, वातावरण आदि से इसमें विविधता देखी जा सकती है।
दृष्टांत के लिए, हिंदी एक भाषा व्यवस्था है लेकिन सभी लोग एक ही प्रकार की हिंदी
का प्रयोग नहीं करते हैं । व्यवहृत हिंदी समय, स्थान, परिवेश एवं व्यक्ति के कारण
अलग-अलग प्रकार से प्रयोग में लाई जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार भाषा का
प्रयोग करता है, यह भाषा प्रयोग या व्यवहार ही ‘पारोल’ है। किसी भी भाषा
में स्वनिमों (phoneme) की संख्या निश्चित है लेकिन स्वनों (phones) की
संख्या असंख्य है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में स्वनिमों की संख्या मात्र 44 है
लेकिन इन्हीं स्वनिमों से अनेकों सार्थक ध्वनियाँ अर्थात स्वन बनाए जा सकते हैं। स्वनिम
(phoneme) भाषा व्यवस्था के अंतर्गत आता है जबकि स्वनों का प्रयोग
भाषा व्यवहार के अंतर्गत आता है। भाषा व्यवस्था एवं भाषा व्यवहार को हम संगीत के उदाहरण
से समझ सकते हैं। भारतीय संगीत में प्रत्येक राग का एक निश्चित एवं निर्धारित रूप
होता है, लेकिन एक ही राग पर कई भिन्न-भिन्न गाने या संगीत तैयार किये जा सकते हैं।
इसी प्रकार भाषा-व्यवस्था एक निश्चित व्यवस्था है जिसके कुछ निश्चित नियम होते हैं
लेकिन इन्हीं नियमों से भाषा का प्रयोक्ता असंख्य रूप में इसे व्यवहृत करता है ।
भाषा-व्यवस्था अमूर्त एवं रूपपरक अधिक है जबकि भाषा-व्यवहार मूर्त एवं अभिव्यक्तिपरक अधिक है। किसी भाषा के व्याकरण में उस भाषा की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के नियमों का निर्धारण होता है। भाषा का प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किंतु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है।
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