अनुवाद क्या है ? (What is Translation?)
एक भाषा में कही या लिखी बात अथवा संदेश को दूसरी भाषा में संप्रेषित
करना ही अनुवाद कहलाता है। अनुवाद मूलतः एक भाषिक प्रक्रिया है जिसमें एक भाषा में
अभिव्यक्त संदेश या कथ्य को दूसरी भाषा में संप्रेषित किया जाता है। जिस भाषा से
किसी संदेश या बात को अनूदित किया जाता है, उस भाषा को स्रोत भाषा (Source Language) या मूल भाषा कहते हैं एवं जिस भाषा में अनुवाद
प्रक्रिया संपन्न होती है, उसे लक्ष्य भाषा (Target Language)
कहते हैं। जैसे, यदि ‘रोहित विद्यालय जाता है।’ का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद ‘Rohit
goes to School.’ होता है तो यहाँ ‘हिंदी’ स्रोत भाषा हुई जिसमें
मूल वाक्य या पाठ है जिसका अनुवाद होना है तथा ‘अंग्रेजी’ लक्ष्य भाषा हुई, जिसमें
अनुवाद का कार्य संपन्न हुआ।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाए तो ‘अनुवाद’ दो शब्दों के
मेल से बना है; ‘अनु’ एवं ‘वाद’। ‘अनु’ एक उपसर्ग है जो सामान्यतः पीछे या बाद आदि का अर्थ देता है एवं ‘वद्’ एक धातु है जिसका अर्थ बोलना या कहना है। ‘वद्’ धातु
के साथ ‘घञ्’ प्रत्यय जुड़ने से यह भाववाचक संज्ञा ‘वाद’ बन
जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो ‘अनुवाद’ का अर्थ ‘बोलने या कहने के बाद या पश्चात्
बोलना या कहना’ है या दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ ‘किसी कही हुई बात को
पुन: कहना या दुहराना’ है।
भारत की परंपरा प्रधानतः मौखिक (oral)
ही रही है। यहाँ प्राचीन काल से शिक्षा, गायन, लोक कथा आदि सभी मुख्यतः मौखिक रूप में ही विद्यमान
रहे हैं। पहले शिक्षा गुरुकुलों में मौखिक परंपरा से ही प्रदान की जाती थी तथा तान-अनुतान, लय
अथवा ध्वनियों के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था। गुरु (आचार्य) या शिक्षक प्रायः
जो कुछ बोलते या उच्चरित करते, शिष्य या छात्र/विद्यार्थी उन्हीं बातों या कथनों
को पीछे-पीछे दुहराते या कहते। प्रायः ये वचन कोई मंत्र, संदेश, स्तुति या गान आदि
होते। इसी को पारंपरिक दृष्टि से ‘अनुवाद’ या ‘अनुवचन’
कहा जाता था।
प्राचीन ग्रंथों में भी ‘अनुवाद’ शब्द का प्रयोग मिलता
है। कुछ उद्धरण आगे दिए गए हैं :
- “अनुवादे चरणाम्” (पाणिनि, अष्टाध्यायी) : इसका अर्थ ‘सिद्ध बात
का प्रतिपादन’ अथवा ‘कही हुई बात का कथन’ से लिए जाता है। (“anuvāde caraṇānām |” (Aṣṭādhyāyī;, II.4.3))
- “आवृत्तिरनुवादो वा” (भर्तृहरि, वाक्पदीयम, दुहराना/पुनर्कथन)
- “ज्ञातस्य कथनमनुवाद” (ज्ञात का पुनर्कथन, जैमिनीय न्यायमाला)
- “प्राप्तस्य पुन: कथने” और “ज्ञातार्थस्य
प्रतिपादने” अर्थात् (शब्दार्थ चिंतामणि कोश) (जो प्राप्त या ज्ञात है, उसे पुन: कहना)।
इसी प्रकार,
अनुवाद के संबंध में वात्स्यायन
भाष्य में “प्रयोजवान् पुनः कथनम्”
मिलता है तो भट्टोजी दीक्षित (1550-1630)
के पाणिनि सूत्र में (सिद्धांत
कौमुदी, 17वीं शताब्दी) अनुवाद को “अवगतार्थ प्रतिपादनम्” (‘ज्ञात
तथ्य की प्रस्तुति’) कहा गया है ।
संस्कृत में ‘अनुवाद’
शब्द का प्रयोग वर्तमान हिंदी में प्रयुक्त अर्थ से भिन्न था। आज हिंदी भाषा में
इसका अर्थ है – एक भाषा में व्यक्त संदेश को दूसरी भाषा में कहना। अनुवाद इस
प्रकार भाषांतरण की प्रक्रिया है। ‘अनुवाद’ को वर्तमान में
अंग्रेजी भाषा के ‘ट्रांसलेशन’ शब्द के पर्याय के रूप में लिया जाता है। ‘Translation’ के पर्याय के रूप में ‘अनुवाद’ शब्द का पहली बार प्रयोग का
श्रेय मोनियर विलियम्स को जाता है। अंग्रेजी का ‘ट्रांसलेशन’
शब्द लैटिन भाषा के ‘translatio’ शब्द से आया है। लैटिन में यह ‘trans’
एवं ‘ferre’ शब्द
से मिलकर बना है। ‘trans’ का
अर्थ ‘across’ या पार है तथा ‘ferre’ का अर्थ ‘to carry’ या ‘to bring’
है। ‘ferre’ शब्द का भूतकालिक कृदंत (Past Participle) ‘lātus’ होता है। इसप्रकार, ‘ट्रांसलेशन’ का अर्थ ‘पार ले जाना’
है। अतः भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ ‘किसी पाठ को एक भाषा से दूसरी
भाषा में ले जाना’ है।
भारत में ‘अनुवाद’ के लिए
अधिकतर शब्द इससे मिलते-जुलते प्रयुक्त होते हैं। असमिया, बांग्ला एवं ओडिया में ‘अनुबाद’
शब्द का प्रयोग होता है। तेलुगु में ‘अनुवदर’ या अनुवादम (అనువాదం)’
शब्द मिलता है तो कन्नड में अनुवादा (ಅನುವಾದ) शब्द प्रयुक्त होता है। गुजराती
में ‘अनुवाद (અનુવાદ)’, ‘भाषांतर’ एवं ‘तर्जम’
शब्द प्रचलित हैं। मराठी में ‘भाषांतर’ तो कश्मीरी में ‘तरजमु’ एवं सिंधी में ‘तर्जम’
शब्द का प्रयोग होता है। अनुवाद के लिए तमिळ में ‘मोळि-पेयरप्पू’ (மொழிபெயர்ப்பு) और मलयाळम में ‘विवर्तनम’ (വിവർത്തനം)
शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। हिंदी में
अनुवाद हेतु अन्य प्रयुक्त शब्द ‘छाया’,
‘टीका’, ‘उलथा’, ‘रूपांतर’, ‘भाषांतर’
एवं ‘तर्जुमा’ आदि
हैं।
इस प्रकार,
अनुवाद एक प्रक्रिया, एक
कला है जिसके माध्यम से एक भाषा (स्रोत भाषा) में कही गई बात को दूसरी भाषा (लक्ष्य
भाषा) में संप्रेषित किया जा सकता है। इसके लिए अनुवादक को दोनों भाषाओं (स्रोत
भाषा एवं लक्ष्य भाषा) का समुचित ज्ञान होना चाहिए। कुशल अनुवाद हेतु अनुवादक को
दोनों भाषाओं की भाषिक संरचना, प्रकृति, समाज एवं संस्कृति से परिचित होना आवश्यक
है। सामान्यतः अनुवादक को यह सलाह दी जाती है कि अनुवाद हेतु अपनी मातृ भाषा या प्रथम
भाषा को लक्ष्य भाषा के रूप में चुनना चाहिए अर्थात उसे दूसरी भाषा से अपनी मातृ भाषा
या प्रथम भाषा में अनुवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसा इसलिए भी कहा जाता है
क्योंकि कोई भी व्यक्ति या अनुवादक अपनी मातृ भाषा या प्रथम भाषा में अन्य भाषाओं
की अपेक्षा अधिक दक्ष एवं जानकार होता है; वह अपने समाज एवं भाषाई संस्कृति से
भलीभांति परिचित होता है। इसी कारण से, यदि अनुवादक अपनी मातृ भाषा या प्रथम भाषा
में अनुवाद कर्म करता है तो उसकी भाषाई सृजनशीलता उत्कृष्ट होती है तथा अनुवाद में
त्रुटियों की संभावना कम रहती है। अतः अनुवादक को अपनी मातृ भाषा अथवा प्रथम भाषा
में अनुवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए।
© डॉ. श्रीनिकेत कुमार मिश्र / Dr. Sriniket Kumar
Mishra
सहायक
प्रोफेसर / Assistant
Professor
अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, / School of Translation and Interpretation
म.गां.अं.हिं.वि., वर्धा / MGAHV, Wardha
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