शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

अनुवाद के विभिन्न अभिगम

 

अनुवाद के विभिन्न अभिगम

(Different Approaches to Translation)

अनुवाद विकल्पों का चयन है। अनुवाद कर्म के दौरान शब्द स्तर से लेकर प्रोक्ति (Discourse) स्तर तक अनुवाद के उद्देश्य, अनुवादक की वैचारिक पूर्वाग्रह एवं सोच से भी अनूदित पाठ में कई परिवर्तन आंशिक या सूक्ष्म से रूप से आ जाते हैं तो कभी-कभी यह बदलाव पूरे संदेश को ही मूल भाषा के पाठ से भिन्न बना देता है। अनुवाद प्रक्रिया में अपनाए अभिगमों से भी अनूदित पाठ अलग-अलग हो सकता है। एक ही पाठ का अनुवाद भिन्न-भिन्न अनुवाद के अभिगमों के प्रयोग से भिन्न-भिन्न अनुवाद हो सकता है।

अभिगम को हम अंग्रेजी के ‘अप्रोच (Approach) शब्द का पर्याय कह सकते हैं। इस प्रकार, अनुवाद अभिगम से हमारा तात्पर्य है कि अनुवाद को हम किस प्रकार से देखते हैं या किस अर्थ में लेते हैं या अनुवाद को हम किस प्रकार से करते हैं तथा अनुवाद कर्म के दौरान हम किस बात पर बल देते हैं। अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जो भाषा पर संपन्न होती है और प्रत्येक भाषा की अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि होती है, जिसमें उसके प्रयोक्ता की परंपरा, इतिहास, भौगोलिक अवस्थिति, नृतत्व विज्ञानी परिप्रेक्ष्य आदि शामिल हैं। इस प्रकार, एक ही पाठ का अनुवाद उसमें प्रयुक्त अनुवाद प्रक्रिया, अनुवाद दृष्टि, अनुवाद उद्देश्य आदि के कारण अलग-अलग हो सकता है। हम यहाँ अनुवाद के विभिन्न अभिगमों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। विभिन्न अनुवाद अभिगमों की दृष्टि से अनुवाद के निम्नलिखित प्रकार कहे जा सकते हैं :

1.      शब्दानुवाद या शब्दानुगामी

2.      भावानुवाद या अर्थानुगामी

3.      अनुवाद का भाषावैज्ञानिक अभिगम

4.      अनुवाद का प्रतीकात्मक अभिगम (Semiotic Approach)

5.      अनुवाद का संप्रेषणात्मक अभिगम

6.      अनुवाद का समाज-भाषावैज्ञानिक अभिगम 

7.      अनुवाद का सांस्कृतिक अभिगम

8.      हर्मेन्यूटिक (मोशन) अभिगम

9.      अनुवाद का साहित्यिक अभिगम

10.  अनुवाद का निर्वचन मूलक/परक अभिगम

1.    शब्दानुवाद या शब्दानुगामी (Literal Translation) :  शब्दानुवाद या शब्दानुगामी अनुवाद, अनुवाद की प्रक्रिया को शब्द स्तर पर ही करता है। शब्दानुवाद को बहुत अच्छा नहीं माना जाता है, लेकिन इसके भी अपने लाभ हैं। प्राचीन समय में ग्रीक (यूनानी), चीनी इसका इस्तेमाल करते थे एवं संस्कृत से चीनी भाषा में बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद हेतु इसका प्रयोग किया जाता था। कई बार धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद में इसका सहारा आज भी लिया जाता है। अनुवाद प्रक्रिया में इसका प्रयोग तब तक किया जा सकता है यदि अनूदित पाठ स्रोत भाषा से भिन्न अर्थ संप्रेषित न करता हो या अर्थ का अनर्थ न हो। यदि भाषाएँ (स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा) सांस्कृतिक-सामाजिक एवं संरचनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे से करीब हों तो शब्दानुवाद अनुवाद का एक सहज अभिगम होता है। मार्कुस तुलिउस किकेरो (Cicero) के अनुसार “रचना का शाब्दिक अनुवाद अनुवादक की अक्षमता का द्योतक होता है।” इस प्रकार, शब्दानुवाद को बहुत श्रेष्ठ अनुवाद नहीं माना जाता है। लेकिन, किसी कृति को संरक्षित करने के उद्देश्य से यह अभिगम बहुत महत्वपूर्ण है।

शब्द-प्रति-शब्द (word for word) अर्थात शब्दश: अनुवाद शब्दानुवाद से भिन्न भी हो सकता है और समान भी। यदि स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा की संरचना एवं शब्द क्रम समान हो तो शब्दानुवाद ही शब्द-प्रति-शब्द या शब्दशः अनुवाद हो सकता है। उदाहरण के लिए, हिंदी एवं अंग्रेजी की संरचना समान नहीं है इसलिए इसके मध्य शब्द-प्रति-शब्द (word for word) या शब्दश: अनुवाद का कोई अर्थ नहीं है। जैसे : “I am a student.” का हिंदी में अनुवाद होगा “मैं हूँ एक विद्यार्थी।” लेकिन यह अनुवाद लक्ष्य भाषा के व्याकरण एवं प्रकृति के अनुसार सही नहीं है। इसका उचित अनुवाद होगा “मैं विद्यार्थी हूँ।”

2.    भावानुवाद या अर्थानुगामी : भावानुवाद को श्रेष्ठ माना जाता है। संत जेरोम ने भी भावानुवाद को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है। अनुवाद की भारतीय परंपरा भी इसी पर बल देती है। इस अनुवाद अभिगम के अनुसार अनुवादक पहले स्रोत भाषा के पाठ के अर्थ को समझता है, विश्लेषित करता है तथा फिर उस अर्थ या स्रोत भाषा के संदेश को लक्ष्य भाषा में लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुसार संप्रेषित करने का प्रयास करता है। इसमें अनुवाद की प्रक्रिया शब्द स्तर पर न होकर अर्थ की दृष्टि से होती है। अर्थ को समग्रता में समझने के लिए हम केवल शब्द स्तर पर ही नहीं सोचते हैं ; वरन् हम वाक्य स्तर पर, परिच्छेद (paragraph) स्तर, प्रोक्ति स्तर पर एवं मूल पाठ के संदर्भ (context) का भी ध्यान रखते हैं। मूल पाठ के अर्थ का समेकित विश्लेषण करने के पश्चात ही हम उसे लक्ष्य भाषा में अंतरित करते हैं।

शब्दानुवाद और भावानुवाद के मध्य बहस बहुत पुरानी है और यही दो अभिगम बीसवीं शताब्दी के पूर्व के हैं। अन्य सभी अभिगम बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के हैं।

3.   भाषावैज्ञानिक अभिगम (Linguistic Approach to Translation) : अनुवाद वस्तुतः भाषा पर संपन्न होती है। इसलिए अनुवाद का अपना भाषा वैज्ञानिक पक्ष भी है। अनुवाद का अध्ययन हम आरंभ में भाषा विज्ञान की एक शाखा ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ के अंतर्गत ही करते थे। इसमें माना जाता है कि चूँकि अनुवाद एक भाषिक गतिविधि है इसलिए इस पर भाषाविज्ञान के सिद्धांत अधिक लागू होते हैं। अनुवाद प्रक्रिया अथवा अनुवाद कर्म को एक भाषिक गतिविधि मानकर ही विश्लेषण किया जाता है। फलस्वरूप इसमें हमारा ध्यान ज्यादा भाषा की संरचना एवं बनावट-बुनावट पर चला जाता है और इसके सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं की तरफ ध्यान कम रहता है।

इस अभिगम के अंतर्गत जे. पी. विने, जौं दार्बेलने, ऑस्टिन, वेज्लियांते, एम.ए.के. हैलिडे, जे.सी. कैटफर्ड आदि का नाम लिया जा सकता है।

4.    अनुवाद का संप्रेषणात्मक अभिगम (Communicative Approach to Translation) : यह  संप्रेषणपरक अभिगम अनुवाद को संचार या संप्रेषण का एक प्रकार या कार्य मानता है, जो अपने मूल सांस्कृतिक और भाषाई सीमाओं के पार जाकर संप्रेषण करने का एक और कार्य करने का प्रयास करता है। इस अधिगम का बल अनुवाद को संप्रेषणीय बनाने पर रहता है। यूजीन ए. नाइडा ने भी अनुवाद के संप्रेषणीय बनाने पर बल दिया है। मूल भाषा में सृजनात्मक लेखन में प्रयोग किए जा सकते हैं, उसे कठिन बनाया जा सकता है; लेकिन अनुवाद को हमें सरल, सुगम, सुग्राह्य बनाने का प्रयास करना चाहिए। अनूदित पाठ की भाषा आसान होनी चाहिए तथा वाक्य भी ज्यादा लंबे न हों, इसका ध्यान रखना चाहिए। अनूदित पाठ की भाषा एवं संदेश लक्ष्य भाषा के पाठकों को अवश्य समझ में आनी चाहिए। इस अभिगम के अंतर्गत यूजीन ए. नाइडा, बासिल हातिम एवं मैसन आदि का नाम लिया जा सकता है।

5.    समाज-भाषावैज्ञानिक अभिगम (Sociolinguistic Approach to Translation) :  किसी भी पाठ का अपना सामाजिक पक्ष या संदर्भ होता है। अनुवाद में चयन, निस्पंदन (Filtering) और सेंसरशिप (रोकटोक) के माध्यम से सामाजिक संदर्भ ही परिभाषित करता है कि क्या अनुवाद के योग्य है और क्या अनुवाद के लायक नहीं है और क्या अनुवाद हेतु मान्य है या क्या स्वीकार्य नहीं है। यह अभिगम मानता है कि अनुवादक अनिवार्यतः अपने समाज का उत्पाद या देन होता है ; हम जो कुछ भी अनुवाद करते हैं, उसमें हमारी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मौजूद अवश्य होती है।

यह अभिगम इजरायल के तेल अवीव स्कूल (School of Tel Aviv) के भाषावैज्ञानिक एवं प्रोफेसरों द्वारा विकसित किया गया जिनमें एन्नी ब्रिसेट (Annie Brisset),  एवेन जोहार (Even Zohar) और गिडियन टूरि (Guideon Toury) जैसे भाषाविद प्रमुख हैं।

6.    हर्मेन्यूटिक (मोशन) अभिगम (Hermeneutic approach to Translation) :  हर्मेन्यूटिक (मोशन) अभिगम मुख्य रूप से जॉर्ज स्टेनर (George Steiner) के शोध पर आधारित अभिगम है। स्टेनर किसी भी मानवीय संचार को अनुवाद का ही रूप मानते हैं। उनकी किताब आफ्टर बैबेल (After Babel) बताती है कि अनुवाद एक विज्ञान नहीं है, बल्कि एक "सटीक कला" है : एक सच्चे अनुवादक को लेखक बनने में सक्षम होना चाहिए ताकि मूल पाठ के लेखक के "कहने के अर्थ या संदेश" को वह उसी रूप में उसी दक्षता से लक्ष्य भाषा में व्याख्यायित कर सके।

7.    सांस्कृतिक अभिगम (Cultural Approach) : अनुवाद का सांस्कृतिक अभिगम अनुवाद को सांस्कृतिक गतिविधि मानता है। सांस्कृतिक कारकों को भाषा प्रणाली में गहराई से एकीकृत किया जाता है, जो किसी राष्ट्र की सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को दर्शाता है, जिसमें सोचने के तरीके, मूल्य, सामाजिक प्रथा, धार्मिक विश्वास, मनोवैज्ञानिक स्थिति, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि शामिल हैं। भाषा में, सांस्कृतिक वाहक और संरक्षक के रूप में, विशाल सांस्कृतिक पैठ और समावेशी शक्ति होती है ; इसलिए अनुवाद की गतिविधि भी संस्कृति द्वारा बड़े स्तर पर संचालित एवं निर्धारित होती है।

इस अनुवाद अभिगम के अंतर्गत आंद्रे लफ़वैर (André Lefevere), सुजन बैसनैट (Susan Bassnett) और मेरी स्नेल-हॉर्नबी (Mary Snell-Hornby) आदि का नाम लिया जा सकता है।

8.    अनुवाद का निर्वचनात्मक अभिगम (Interpretative Approach to Translation) : अनुवाद का निर्वचन मूलक या परक अभिगम इस बात पर बल देता है कि अनुवाद के लिए निर्वचन करने की आवश्यकता होती है। यह कहता है कि ‘Interpréter pour traduire अर्थात ‘Interpret to translate’ या अनुवाद के लिए निर्वचन करना आवश्यक है। इस अभिगम के अनुसार स्रोत भाषा (SL) में निहित संदेश को हमें लक्ष्य भाषा (TL) में निर्वचन करने का (व्याख्या करने का) प्रयास ही अनुवाद है।

इस अनुवाद अभिगम के अंतर्गत फ्रांस के अनुवादक और दुभाषिए मरिआन लेदेरेर और दानिका सेलेस्कोविच (Danica Seleskovitch and Marianne Lederer) का प्रमुखतया से लिया जा सकता है।

उपर्युक्त अभिगम से हमें अनुवाद को एक प्रक्रिया एवं इसके घटकों को समझने में सहायता मिलती है। हम यह देख सकते हैं कि किस प्रकार इन विभिन्न अभिगमों के चयन से अनुवाद में परिवर्तन हो सकता है।

© डॉ. श्रीनिकेत कुमार मिश्र / Dr. Sriniket Kumar Mishra

सहायक प्रोफेसर / Assistant Professor

अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, / School of Translation and Interpretation

 म.गां.अं.हिं.वि., वर्धा / MGAHV, Wardha