भारत विद्या एवं इसके विकास के विभिन्न चरण
भारत विद्या भारत के इतिहास, संस्कृति, इसकी प्राचीन भाषाओं और साहित्यों का अध्ययन है। कई विश्वविद्यालयों में इसे दक्षिण एशिया अध्ययन के अंतर्गत रखा गया है। जर्मनी में सबसे ज्यादा 13 विश्वविद्यालयों में भारत विद्या पर शोध एवं अध्ययन-अध्यापन होता है। कई जगह इसे इंडिक स्टडीज या इंडियन स्टडीज के नाम से भी जाना जाता है।
भारत को जानने की बाहरी लोगों की हमेशा से इच्छा रही है। समय-समय पर विदेशी विद्वान भारत आते रहे हैं। आधुनिक भारत विद्या के विकास को निम्नलिखित 6 चरण या काल में विभाजित कर अध्ययन किया जा सकता है :
1. आदि काल : भारत विद्या का प्राचीनतम उदाहरण मेगास्थनीज को माना जा सकता है। मेगास्थनीज (350–290 ईसा पूर्व) चंद्रगुप्त के शासनकाल में भारत आया था और उसने भारत पर चार खंडों की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिका’ लिखी जिसके कुछ अंश अभी भी उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय ज्ञान के लिए समय-समय पर चीन से भी विद्वान आते रहे हैं।
2. मध्य काल : अब्बासी वंश के समय वहाँ पर भारत से अनेक विद्वानों को बुलाया गया था और कई ग्रंथों का अनुवाद एवं रचना हुई थी। उस समय भी भारतीय ज्ञान की काफी मांग रही थी। पंचतंत्र का भारत से यूरोप तक की यात्रा भी इसी भारत विद्या का हिस्सा कहा जा सकता है। अलबरूनी (973–1048 ईस्वी) भारत विद्या का जनक भी कहा जाता है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘तारीख अल-हिन्द’ है।
3. पूर्व औपनिवेशिक काल : इस काल को हम मोटे तौर पर सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी (1500-1700) तक मान सकते हैं। कई विदेशी विद्वानों ने भारतीय समाज, इतिहास, संस्कृति के अध्ययन के लिए भारतीय भाषाओं को सीखा। इस समय हिंदुत्व या हिंदू धर्म को बहुत ही सांस्कृतिक, सम्मान एवं शोध के लिए सम्मान दिया जाता था। फ्रांस्वा बर्नियर आदि भारत आए । जर्मनी के हेनरिक रोथ (Heinrich Roth) (1620-1668) संस्कृत के पहले विद्वान थे।
4. औपनिवेशिक काल : भारत विद्या का सबसे ज्यादा विकास औपनिवेशिक काल के दौरान ही हुआ। प्रशासकीय कार्यों की दृष्टि से भी भारतीय समाज की संरचना की व्यवस्थित जानकारी आवश्यक महसूस की गयी। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत की प्राचीन भाषाएँ सीखीं। मिशनरी सक्रियताओं के बढ़ावे ने भी भारत विद्या को विकास की गति दी। प्रारंभिक औपनिवेशिक काल को 1770-1820 तक मान सकते हैं। देशी विद्वानों और भारत विद्या के विद्वानों के बीच निकट संबंध थे । ईस्ट इंडिया कंपनी अच्छी तरह समझती थी कि भारत की संस्कृति, लोक परंपरा, रीति-रिवाज एवं भाषाओं की जानकारी के लिए देशी बुद्धिजीवी लोगों से जुड़ना होगा। इसी दौरान कई संस्थाओं की स्थापना हुई जिसमें कुछ प्रमुख निम्न हैं :
i. एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना (1784) कोलकता (तात्कालिक कलकत्ता),
ii. सोसिएते आजियातिक 1822 (Société Asiatique) ,
iii. रॉयल एशियाटिक सोसाइटी 1824,
iv. अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी 1842,
v. जर्मन ओरिएंटल सोसाइटी 1845,
सन 1820 के बाद औपनिवेशिक काल अपने चरम पर पहुँच जाता है तथा उनमें भारत विद्या के प्रति स्वाभाविक लगाव कम और अपना फायदा ज्यादा था। वे भारतीय सांस्कृतिक एवं धार्मिक संपदाओं को नीचा दिखाने का भी प्रयास करते थे। कई नए विचार लाये जैसे आर्यन आक्रमण, आर्यन, द्रविड़ एवं आदिवासी भाषाओं की संकल्पना, जिससे भारत को वैचारिक स्तर पर विबह्जित कर सके।
इसमें से कुछ इंडोमेनिया या इंडोफोबिया से ग्रसित थे। इसमें प्राय: इसका उपयोग इसकी भारत की निंदा या भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए भी किया जाता था। 1773 में ब्रिटिश संसद में रेग्युलेटिंग एक्ट बना. वारेन हेस्टिंग्स गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। वह भारतीय संस्कृति की संभावनाओं को मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था के आधार के रूप में देखता था। चार्ल्स विल्किंस ने कलकत्ता में पहला सरकारी छापाखाना खोला। उसने 1783 में भगवत गीता का अनुवाद किया। 1781 में कलकत्ता मदरसा, 1792 में बनारस में संस्कृत कॉलेज, 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज 1820 में पूना एवं कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की स्थापना की गयी। 1813 टॉमस यंग ने पहली बार इंडो-यूरोपीयन की अवधारणा का नामकरण किया लेकिन इसका विस्तार विलियम जोन्स ने किया। टॉमस आर. ट्राउटमन और माइकल डॉडसन के अनुसार विलियम जोन्स की अवधारणा बाइबिल में वर्णित नोआ और उसके तीन पुत्रों के अवतरण पर आधारित थी। डार्विनवाद और दीर्घकालीन विलुप्त प्राणियों के करीब मानवीय अवशेषों की ख़ोज के साथ ही उनका आधार ध्वस्त हो गया। हेनरी थॉमस कोलब्रुक का कार्य भारत विद्या क्षेत्र में उल्लेखनीय है। कोलब्रुक ने 1801 ने तर्क दिया कि भारत की सभी आधुनिक भाषाएँ संस्कृत से अलग होकर बनी हैं। इस प्रकार उसने भारत में भाषाई एकता के सिद्धांत को प्रस्तुत किया। 1840 में स्टीवेंसन और हॉजसन ने भारत में संस्कृत आगमन के पहले, आदिवासी भाषा और लोगों की एकता (द्रविड़ियन और मुंडा परिवार समेत ) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। काल्डवेल ने अपने तुलनात्मक व्याकरण (1856) में स्पष्ट रूप से स्थापित किया कि मुंडा का अपना अलग मानव-जाति भाषाविज्ञान सत्ता है जो आर्यन और द्रविड़ियन से अलग है
5. उत्तर- औपनिवेशिक काल : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान में भारत विद्या के लिए ‘जापानी एसोसिएशन ऑफ इंडियन एंड बुद्धिस्ट स्टडीज’ (1949) की स्थापना हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कई जगह पर भरा विद्या के केंद्र स्थापित हुए। हिप्पियों, बीटल्स बैंड के कारण भी इस समय भारत विद्या के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा। हिंदी फिल्म या बॉलीवुड के कारन भी भारत विद्या के प्रति लोगों का लगाव बढ़ा ।
6. वर्तमान काल : जहाँ वर्तमान काल में विश्व के अन्य विश्वविद्यालयों में पारंपरिक भारत विद्या के प्रति रुझान कम हुआ है और दक्षिण एशिया अध्ययन की मांग बढ़ी है, वहीं भारत में इसकी तरफ ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। भारतीय विश्वविद्यालय विदेशियों द्वारा किये गए कार्यों की समीक्षा, पुर्रीक्षण एवं अवलोकन करना चाहते हैं। इसी दिशा 2017-18 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं इंडिक स्टडीज के संस्थान की स्थापना हुई। अभी भी भारत के कई अन्य विश्वविद्यालयों में जैसे-कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, बड़ौदा विश्वविद्यालय इस दिशा में अनवरत कार्यरत हैं। डायस्पोरा अध्ययन से भी भारत विद्या के अध्ययन का विस्तार हुआ है।
इस प्रकार आधुनिक भारत विद्या का स्वरूप में बदलाव आता जा रहा है। वर्तमान में डायस्पोरा अध्ययन, दक्षिण एशिया अध्ययन के अंतर्गत भी इस पर कार्य किये जा रहे हैं।
© डॉ. श्रीनिकेत कुमार मिश्र